साधो,
यह अजीब संकट है।
असी घाट पर
सहमें, सिमटे
तुलसीदास पड़े हैं
बीच बजारे
बिना लुकाठी
दास कबीर खड़े हैं
मीरा का
इकतारा चुप है
सब कुछ उलट-पुलट है।
हरि विमुखन के
संग-साथ का
दिन-दिन चलन बढ़ा है
सूरदास की
कारी कमरी
दूजा रंग चढ़ा है
अब तो
यहाँ-वहाँ
ऐसे-वैसों का ही जमघट है।
चुप्पी साधे
रहिमन बैठे
देख दिनन के फेरे
चंदन के वन में
चौतरफा
हैं साँपों के डेरे
जाने किस दिन
विष चढ़ जाए
लगता अंत निकट है।